१९५६ से १९७२ तक भारत के विभिन्न राज्योें मेें बंगाल, बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, नेपाल तथा महाराष्ट्र के कई नगरोें मेें सेवायेें दी। आपका जीवन त्याग, तपस्या से ओतप्रेत था, जो सर्व के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है। आप सदा ही अपने आपको निमित्त समझकर निर्माणता से हर प्रकार की सेवा मेें सदा हाजिर रहती थी।
उमंग उत्साह की विशेषता आपके रग रग मेें समाई हुई थी। बुद्धि की कुशाग्रता और हर बात को सीखने की उत्कण्ठा के स्वभाव विशेष के कारण, आप बाबा की विशेष लाडली थी।
बाबा ने उन्हेें हिंदी टायपिंग सिखने के लिए पंधरा दिन की अवधि दी थी। दादा विश्वरतन जी को सिखाने का कार्य सौैंपा था। परंतु दीदा जी ने कडी मेहनत करके ९ दिन मेें ही टाइपिंग सीख ली। जब की, दीदी जी केवल मात्र ७ वी कक्षा पढी थी परंतु उन्हेें हिंदी, सिंधी, मुलतानी, गुजराती, मराठी, पंजाबी ऐसी ६ भाषायेें आती थी। आप कुशल वक्तृत्व कला की धनी थी। ईश्वरीय सेवाओें के प्रित प्लानिंग बुद्धि और सर्व प्रकारकी आलराउण्ड सेवा करना ही आपका व्यक्तित्व था।
ऐसा मम्मा बाबा ने तराशा हुआ हीरा, १९७२ मेें स्वयं बापदादा ने भारत के केन्द्रबिंदु नागपुर मेें विदर्भ क्षेत्र की सेवाओें के लिए जड़ दिया। विदर्भ भूमि जो दीदी जी के लिए अंजान भूमि, ना कभी देखा था ना सुना था। मराठी भाषा से बेखबर, वातावरण और खानपान के भिन्नता को भी स्वीकारते हुये, ईश्वरीय सेवा का बीज बोया। न साधन थे, न साथी थे, लेकिन सेवा का अटल लक्ष्य था। बाबा का एक बल और एक भरोसा था, जिससे इस बीज को पल्लवित करके दीदी जी ने विशाल वटवृक्ष का निर्माण किया। विदर्भ उपक्षेत्रिय संचालिका के रूप मेें सेवायेें देते हुये आपके नेतृत्व मेें कई प्रकार की सेवायेें यहां सम्पन्न हुई। जैसे कि आध्यात्मिक मेले, प्रदर्शनीयाँ , संगोष्ठी, कार्यशालायेें, यात्रायेें, मेगा प्रेग्रम्स्, समाज के विभिन्न प्रभागोें के लिए चर्चासत्र आदि आदि..
दीदी जी के आदर्शों से प्रेरीत होकर यहां की अनेक कन्यायेें इस विद्यालय मेें समर्पित हुई। ४०० से भी अधिक कन्याओें को श्रेष्ठ मार्गदर्शन और पालना देकर आपने ईश्वरीय सेवाओें के लिए तैयार किया। वर्तमान विदर्भ मेें १२३ सेवाकेन्द्र उपसेवाकेन्द्र एवं १००० से भी अधिक राजयोग पाठशालायेें चल रही है। ४०,००० से भी अधिक भाई बहनेें इस ज्ञान मार्ग मेें चलकर, पवित्र गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे है।
आज्ञाकारिता आपका प्रमुख गुण था। बाबाकी व दादीयोें की हर आज्ञा को निःसंकल्प होकर पालन करती थी, कभी किसी सेवा के लिए ना नहीR की। एक बार पुना मेें महाराष्ट्र झोन कि मिटीRग थी। आदरणीया दादी जानकी जी, तब झोन इन्चार्ज थे। दादीजी ने पुछा महाराष्ट्र की सेवाओें को बढ़ाने के लिए मराठी साहित्य छपना चाहिये, इसकी जिम्मेवारी कौन लेेंगे ? किसीने हाथ नहीR उठाया, तो दादी जी ने पुछा -पुष्पा तुम यह जिम्मा उठायेगी ? तो दीदी जी ने तुरंत हाँ कर दी। जबकी दीदी जी को उन दिनोें मराठी भाषा भी नही आती थी और साहित्य छपाई का कोई अनुभव नही था। फिर भी दादीजी की आज्ञा को पालन करते हुए मराठी साहित्य विभाग नागपुर मेें आरंभ किया और आज मराठी मेें ५६ प्रकार की किताबे प्रकाशित हो रही है।
कैसी भी कठिन परीक्षा की घड़ी हो लेकीन सदा निश्चिंत, अचल अडोल रहकर पेपर समझ पास करती थी। औरो मेें भी उम्मींद भरके, हर आत्मा मेें आत्मविश्वास पैदा करके उन्हेें आगे बढाती थी। दीदी जी का व्यक्तित्व बहुत पारदशीa था। अंदर बाहर की सच्चाई और सफाई उनके जीवन का अभिन्न अंग था। साकार मम्मा बाबा के संस्मरण सुनाकर सभी मेें वफादारी का गुण भरती थी…..
छोटी छोटी बहनेें व्यवहारिक ज्ञान से अनभिज्ञ होकर कुछ भुलेें कर दे, तो उसे समा लेती थी और बडे प्यार से बाबा की श्रीमत याद दिलाकर आगे के लिए सावधानी देती थी। कोई दिलशिकस्त होकर दीदी के पास आये तो दीदी उसमेें बल भर देती थी।
दीदी एक ममतामई माँ थी। हर एक मेें हर सेवा की निपुणता भर जानी चाहिए, ऐसा लक्ष रखकर सबको हर कार्य सिखाती थी। हर बहन के स्वास्थ्य का ध्यान रखती, बाबा के घर मेें सभी संतुष्ट रहे, हर एक अपनी जिम्मेदारी समझ सेवा करेें, आपस मेें सभी मिलजुल के एकमत होकर प्यार से चलेें, ऐसा संस्कार सबमेें भरकर संगठन मेें बल भरती थी। एक बार एक बहन हॉस्पिटल मेें एड्मिट थी। दीदी रोज जाकर हालचाल पुछती थी। एक दिन दीदी कोई प्रेग्रम करके आई थी, सारा दिन सफर करके थकी थी, तबियत भी अस्वस्थ थी, फिर भी खुद की परवाह न करके हॉस्पिटल मेें उस बहन को मिलकर ही घर लौटी। दीदी बडे ही रमणीक थी, कैसी भी परिस्थिती आये लेकीन दीदी को हमने सिरीयस मुड़ मेें नही देखा। अपने आलोचकोें के लिए भी रहमदिल थी। अन्य किसी बहन को ऑपरेशन के लिए हॉस्पिटल मेें एड्मिट होना था तब दीदी ने कहां कलसे तुम्हारी परहेज शुरु हो जायेगी। इसलिए उसके मनपसंद मसाले बैैंगन की सब्जी अपने हाथोें से बनाकर खिलाई। ऑपरेशन के बाद भी रोज पुछती थी.. रात को निंद आई ? आज क्या खाने का मन है ? ऐसे लौकिक माँ से भी अधिक प्यार की पालना देती थी दीदी।
दीदी जी ने श्रीमत को ढाल बना कर जितनी रूची से सेवायेें की, उतना ही स्वयं को समेट कर उपराम हो गई। अपने पुराने हिसाब किताब चुक्त कर अपनी बगीया को छोड, विदा हुई २३ अप्रैल २०१६, शाम को….. आपकी पालना से कृतज्ञ आपकी हम सब भुजायेें नतमस्तक होकर, दिल की गहराई से आपको कोटी-कोटी वंदन करते हैैं !
जिसपर सारा जहां पुष्पोें की वर्षा करेें, ऐसी आप बाबा के दिल की रानी थी
जिसने सिंचा विदर्भ को,और आलोकित करेगी विश्व शांति सरोवर को….
ऐसी आप दीदी पुष्पारानी थी!